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एक प्रयोग: अपने जीवन के साथ

मैं हूँ इसीलिये.....
मैं हूँ इसीलिये.....
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कई दिनों से मैं ये पोस्ट लिखने की सोच रही थी, परंतु हर बार कुछ न कुछ सोचकर छोड़ देती। लगता, अभी शायद कुछ और समझना बाकी है। शायद कुछ ऐसा हो जो की मेरी नज़र से दूर है और बाकी लोगों को नज़र आता है। बहुत सोचा, समाज की हर चीज़ को बहुत गहराई से समझने की कोशिश की, इन रीतियों को उचित मानने का हरसंभव प्रयास किया, पर फिर भी मेरी आत्मा को ये स्वीकार नहीं ……..

क्षमा चाहूंगी, शब्दो मे उलझाने को, परंतु मुख्य मुद्दा तो दहेज है ……….. बहुत दिनों पहले एक ब्लॉग पोस्ट की थी मैंने, “यहाँ दूल्हे ढूंढने नहीं, खरीदने पड़ते हैं”, लोगों की मिली-जुली प्रतिक्रियाओं ने मुझे सोचने पर मजबूर किया। परंतु मेरी सोच का दायरा बस यही तक सिमट गया की इसका हल क्या है? क्योंकि मैं अब ये सिद्ध करने की ज़रूरत नहीं समझती की दहेज ने किस कदर हमारे समाज मे अपनी जड़ें मजबूत कर ली हैं क्योंकि यह तो सर्वविदित है। कोई स्वीकार न करे वो अलग बात है।

इस सवाल का जवाब ढूँढने मे सबसे पहले एक और सवाल मेरे सामने आया, वो ये की‘दहेज से सबसे ज़्यादा प्रभावित कौन होता है?’ समाज? दूल्हे के घरवाले? लड़की के घरवाले? या स्वयं लड़की? जवाब हम सभी को पता है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जो सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है, वो है स्वयं वो लड़की जिसकी शादी दहेज देकर की जा रही है। माता-पिता भी प्रभावित होते हैं, परंतु उनकी परेशानी अलग तरह की होती है। वो चाहते हैं की उनकी बेटी की शादी किसी भी तरह हो जाए, फिर उसके लिए कितना भी धन दहेज मे देना पड़े, वो एकत्र करने को तैयार रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे बेटी की शादी जैसे-तैसे कर देना उनकी विवशता है, वरना रिश्तेदार, समाज क्या कहेगा।

परंतु लड़की? उसकी तो पूरी ज़िंदगी का सवाल है। जिन माता – पिता ने उसे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, हमेशा इतना प्यार दिया, दुनिया की सारी बुराइयों से बचाकर रखा, वही आज उसे पराया कर देना चाहते हैं। और सिर्फ इतना नहीं, इसके लिए वो मानसिक और आर्थिक रूप से परेशान भी हैं। कोई भी बेटी अपने माता-पिता को परेशान नहीं देखना चाहेगी, किन्तु वो देखती है, क्योंकि अब शादी करना उसकी भी विवशता है! अन्यथा समाज क्या कहेगा, रिश्तेदार क्या कहेंगे, और सबसे बड़ा कारण‘उसके माता-पिता व्यथित रहेंगे?’ तो शादी करना ही ज़रूरी लगने लगता है। इतने लोगो को चिंतित रखने से बेहतर लगता है की शादी कर लो …….. जैसे कोई अपने जीवन से तंग आकर आत्म-हत्या तक के लिए तैयार हो जाता है। मेरे मरने से अगर तुम ज़िंदा रहते हो तो ठीक है मैं मर जाती हूँ!

परंतु एक मिनट! क्या सच मे शादी करना विवशता है? ऐसी भी क्या विवशता है की कोई लड़की बिना शादी किए नहीं रह सकती? शादी करना इतना अनिवार्य बनाया किसने? क्या जीवन का एकमात्र लक्ष्य बस शादी कर लेना है (करियर एक अलग चीज़ है)?  और अगर शादी करना इतना अनिवार्य है तो इसमे इतना लेन-देन क्यो? ये अनिवार्यता तो लड़का-लड़की दोनों के लिए हुई?

ये समाज जो बेटी की शादी न होने तक उसके माता-पिता को ताने देकर उनका जीवन दूभर कर देता है, ये वही समाज है जहां एक अकेली लड़की खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती। और शादी करने को बेमन के भी राज़ी हो जाती है, ताकि एक आश्रय मिल सके जहां वह खुद को सुरक्षित महसूस करे क्योंकि माता-पिता जीवन भर उसका साथ नहीं दे पाएंगे। लेकिन मैं पूछना चाहती हूँ, की क्या किसी लड़की का ऐसा सोचना सही है?  शादी तो दो दिलों और दो परिवारों का मिलन होता है, क्या उसे इस वजह से बाध्य होकर स्वीकारना उचित है?

जब दहेज से सबसे ज़्यादा प्रभाव लड़कियों पर पड़ता है, तो इसका समाधान भी लड़कियों को ही करना होगा। समाज की इन खोखली रीतियों से खुद को बाहर निकालना होगा। जो समाज एक अकेली लड़की को उपेक्षा की नज़र से देखता है, उसी समाज मे सर उठाकर पूरे आत्म-सम्मान के साथ खुद को स्थापित करना होगा। हमारे समाज की बेटियों को ये ज़िम्मेदारी लेनी होगी को वो दहेज देकर शादी नहीं करेंगी। अगर समाज की हर बेटी यह प्रण ले ले की अपने माता-पिता को दहेज की रकम जुटाने के लिए विवश होते नहीं देखना है तो ही कुछ हल निकाल सकता है। क्योंकि चोट जिसे लगती है, दर्द वही समझता है। जो दर्द बेटियों को सहना पड़ता है, वो किसी और को समझाया नहीं जा सकता अतः समाधान की अपेक्षा भी किसी और से नहीं रखी जा सकती।

तो मेरा ये लेख मेरी उन सारी बहनों को समर्पित है जो अपने माता-पिता को विवश होते नहीं देखना चाहती। जो अपने स्वार्थों मे नहीं घिरी हैं और अपने लड़की होने पर अफसोस नहीं, गर्व करती हैं। यदि आपको लड़की होने पर गर्व है तो कुछ ऐसा काम करिए की वही गर्व आपके माता-पिता को भी हो। आए दिन हम लोग अखबारों मे पढ़ते रहते हैं की लोग बेटियों को जनम से पहले ही या जनम के तुरंत बाद ही मार देते हैं। हम लोग खबर पढ़ते हैं, उन माता-पिता को थोड़ा सा भला-बुरा कहते हैं, और भूल जाते हैं। कभी इस बात पे गंभीरता से विचार किया है की ऐसा क्यों होता है? एक बहुत बड़ा कारण ये है की वो माता-पिता एक बेटी की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते, क्योंकि पहले उन्हें उसकी सुरक्षा का भय रहता है और फिर शादी का! शादी का भय? जी हाँ,क्योंकि शादी के लिए दहेज की रकम जो जमा करनी पड़ेगी, जबकि बेटे के जन्म पे खुशियाँ मनाते हैं क्योंकि उसके लिए इनमे से कोई भय नहीं सताता।

इसलिए मेरा अनुरोध आप सभी बेटियों से है जिनके माता-पिता ने उन्हें जन्म से पहले मार नहीं दिया, आपको अपनी अहमियत खुद सिद्ध करनी होगी। अपने माता-पिता को कभी इस बात पर अफसोस न होने दें की उन्होने एक बेटी को जन्म दिया। हर बेटी मे इतना साहस होना चाहिए की वो बिना शादी के अपनी पूरी ज़िंदगी गुजारने को तैयार रहे। तभी इन दहेज के लोभियों को सबक सिखाया जा सकता है। शादी सिर्फ किसी एक की आवश्यकता नहीं है तो फिर बेटी के माता-पिता अपना सर झुकाकर धन क्यों दें? यदि शादी करनी है तो लड़की को पूरे सम्मान के साथ बिना दहेज के स्वीकार करें और यदि यह संभव नहीं है तो ये ज़िम्मेदारी बेटियों की है की वो ऐसे विवाह से ही इंकार कर दे। आखिर बेटियों के माता-पिता ने कोई गुनाह नहीं किया है उन्हें जन्म देकर, जिसकी कीमत उन्हें समाज को अदा करनी हो।
यही विनती बेटियों के माता-पिता से भी है, क्योंकि उन्हें भी तैयार रहना चाहिए अपनी बेटी के निर्णय मे उसका साथ देने के लिए, बेटी होना कोई जुर्म नहीं, तो बेटी सज़ा क्यों भुगते? मुझे पता है की ये सब लिखना आसान है, पर करना बहुत मुश्किल। वो भी उस समाज मे जहां रोज़ नए कानून बनाए जा रहे हैं देश मे बेटियों को सुरक्षित रखने के लिए! पर एक कदम तो किसी न किसी को उठाना ही होगा।

शादी कभी भी विवश होकर नहीं करनी चाहिए। अगर ये दो दिलों का मेल है, तो दिल मिलने भी चाहिए!! और मुझे नहीं लगता की इसके लिए दहेज का लेन-देन आवश्यक है। मुझे ये भी पता है की एक लड़की खुद भी अपनी शादी को लेकर बहुत सपने सजा लेती है तो उसके लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं, परंतु क्या आप अपने आत्म-सम्मान को गिरवी रख कर एक ऐसे इंसान के साथ फेरे लेने को तैयार हैं जो रिश्तों को पैसों से तोलता हो? कई बार ऐसा भी होता है की बेटियाँ अपने लिए जीवनसाथी खुद ही चुनकर प्रेम मे स्वार्थी हो जाती हैं और खुद अपने माता-पिता को कहती हैं लड़के वालों को दहेज का समान देने के लिए? क्या आप इस श्रेणी मे हैं? तो क्षमा कीजिएगा, मैं स्वार्थी लोगो को कुछ भी समझाने मे खुद को असमर्थ पाती हूँ।

परंतु हाँ, मैं भी एक बेटी हूँ और मुझे पता है की शादी करके अपना घर बसाना ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य नहीं हैं। मनुष्य का जीवन दुर्लभ है, ईश्वर ने उसे अन्य जीवों से श्रेष्ठ इसलिए नहीं बनाया की वो तरह तरह की रीतियाँ बनाकर दूसरे मनुष्यों का जीवन दूभर कर दे। अपने जीवन को मैं यों किसी और के बने नियमों के अनुसार चलकर व्यर्थ नहीं कर सकती। ये मेरा जीवन है और मैं निर्णय करूंगी की मुझे अपने जीवन को किस तरह जीना है। मुझे रीतियों, परम्पराओं के नाम पर चलने वाली दिशा-हीन भीड़ मे शामिल नहीं होना। मैं एक लड़की हूँ, मैं भी अकेलेपन से डरती हूँ, पर फिर भी अपनी हर डगर पर अकेले चलने का हौंसला रखती हूँ। कभी ठोकर खाकर गिरती भी हूँ, पर फिर संभल जाती हूँ, मैं अपने माता-पिता की बेटी हूँ और उनका गुरूर बन जाना चाहती हूँ। मैं अपने जीवन का कोई भी निर्णय विवशता मे या स्वार्थ के आधीन होकर नहीं लेना चाहती। और एक बात आप सबसे कहना चाहती हूँ, अपने जीवन के लक्ष्य को इतना ऊंचा बनाओ, की राह की छोटी छोटी बाधाएँ आपको लक्ष्य के और करीब ले जाएँ। न की आपको वापिस लौटने पर विवश करें। “


ना कहने का महूरत यही है। किसी को ये हक मत दीजिये की वो आपके जीवन का फैसला करे और आपको वो फैसले मानने को विवश करे। फिर वो चाहे कोई भी हो, चाहे आपके होने वाले पतिदेव के घरवाले, चाहे आपके घरवाले, और चाहे आपका कोई बहुत अच्छा मित्र जिससे आप विवाह करने की इच्छा रखती हों। क्योंकि ये जीवन आपका है,और आपको इसे संवारना है और साथ ही समाज की बाकी लड़कियों के लिए एक प्रेरणा भी बनाना है। एक प्रयोग अपने जीवन के साथ करना है।

– अपराजिता

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